-रंजीता नाथ घई
आज फिर उस मोड़ पर मुड़ना हुआ…
आज फिर उस मोड़ पर मुड़ना हुआ
जब रखा था पहला कदम मैंने इस देहलीज़ पर…..
मन में डर और एक अजीब सी बेचैनी थी,
नए थे गलियारे और नयी सी दीवारें थी,
थम सी जाती थी हँसी और कशमकश से जूझती थी,
फिर दिखी एक सुनहरी किरन, इंद्रधनुष से रंग बिखेरती किरन,
आत्मविश्वास जगाती एक किरन, तूफानों को थामती हुई किरन,
भविष्य की आहट पहचान, आगे बढऩे का हौसला देती वो किरन,
आज फिर उस मोड़ पर मुड़ना हुआ
जब रखा था पहला कदम मैंने इस देहलीज़ पर…..
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कौन पकड़ पाया है रिशतों को और रेत को,
जितना समेटना चाहा उतना ही हाथों से सरकती गई,
हाथ कल भी खाली थे और आज भी खाली है,
बीते कल के पास न कहने को कुछ नया है,
न इसके पास तुझे देने को कुछ नया है,
कुछ है तो बस एक मीठा सा ऐहसास है,
एक प्यारी सी मुसकान है, एक अपनेपन का आगास है,
आज फिर उस मोड़ पर मुड़ना हुआ
जब रखा था पहला कदम मैंने इस देहलीज़ पर…..
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तूने किया वो सब जो तेरे बस में था,
उसी बंधन से मुक्त हो आगे बढ़ने का समय आया है,
पल-पल, क्षण-क्षण, नई उडान भरते हुए
नए गीत गाने हैं, तसवीर में नए रंग भरने हैं,
सप्त चक्र के जीवन में सुमधुर यादें बटोरने का,
कुछ अपनो से विदा लेने का, कुछ नए रिश्ते जोड़ने का वक्त आया है,
आज फिर उस मोड़ पर मुड़ना हुआ
जब रखा था पहला कदम मैंने इस देहलीज़ पर…..
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खूबसूरत कविता।??
Shukriya ??? ji